Friday, February 12, 2010

यहां तो सांड से परदा करती हैं महिलाएं

गौवंश की वैदिक काल से ही भारत में पूजा होती है। लेकिन नोएडा में गांव और खेतीबाड़ी खत्म होने के बावजूद गौवंश को जितना सम्मान दिया जाता है शायद ही कहीं मिलता हो। यमुना खादर क्षेत्र के गांवों में सांड को देखकर महिलाएं परदा कर लेती हैं। दरअसल इन गांवों में सांड को ग्राम देवता का दर्जा हासिल है।
नोएडा के 43 गांवों में भूमि अधिग्रहण के चलते खेतीबाड़ी समाप्त हो चुकी है। यमुना खादर क्षेत्र के 19 गांवों में अभी कुछ खेत बाकी हैं। किसान पशुपालन भी कर रहे हैं। कई-कई गाय पालते हैं। गौवंश के उन्नयन पर किसान खासा ध्यान भी देते हैं। हर गांव में दो या तीन सांड हैं। इनके सरक्षण की जिम्मेदारी ग्राम पंचायतों पर है। सांड को मारने या पीटने पर सजा और जुर्माना कर दिया जाता है। ऐसी कई घटनाएं हो चुकी हैं। सांडों से जुड़े इस कानूनी पक्ष के साथ गांवों में पुरानी सामाजिक परंपरा भी कायम है। अगर सामने से सांड आ रहा हो तो गांव की महिलाएं देखकर परदा कर लेती हैं। डर के कारण नहीं बल्कि सम्मान के लिए ऐसा करती हैं। इस बारे में नंगला गांव के निवासी बुजुर्ग उदय सिंह का कहना है कि सांड को ग्राम देवता का दरजा दिया गया है। किवदंती है कि जहां तक सांड के दहाडऩे की आवाज पहुंचती है,वहां तक भूत-प्रेत नहीं फटकते। महाशिवरात्रि के दिन तो लोग सांड को पकवान-मिठाई खिलाते हैं। उदय सिंह इस सामाजिक रवायत की बाबत बताते हैं कि खादर के अधिकांश गांव पहले हरियाणा राज्य में थे। यमुना नदी हरियाणा की ओर चली गई। खेतों को लेकर दोनों ओर के किसान लड़ते थे। वर्ष 1971 में यमुना खादर क्षेत्र में सीमांकन किया गया तो ये गांव उत्तर प्रदेश में शामिल कर लिए गए। सांड को पूजने की परंपरा हरियाणा से यहां आई है।
मांगरौली दोस्तपुर गांव के पूर्व प्रधान कालू राम बताते हैं कि बछड़े को सांड बनने के लिए छोड़ते वक्त गांव की मुहर गरम करके उसकी पीठ पर दागी जाती है। जिससे झुंड में भी उसकी पहचान की जा सके। मुख्य सांड रोजाना घर-घर घूमता है। महिलाएं-बच्चे गुड़ और चने की दाल,रोटी या आटा का पेड़ा खिलाते हैं। सांड को घर के बुजुर्ग की तरह सम्मान देते हैं। कालू राम दुख जताते हैं कि खेतीबाड़ी समाप्त होने से पुरानी परंपराएं समाप्त हो रही हैं।
कुछ भी हो गांव के लोग अभी तक इस वैदिक परंपरा को आगे बढ़ा रहे हैं। हमारे पूर्वजों ने पशु-पक्षियों को संरक्षण देने और उनके वैज्ञानिक लाभ को निरंतर बनाए रखने के लिए इन परंपराओं का विकास किया। हर परंपरा की मूल में वैज्ञानिक दृष्टिïकोण निहित है। अगर हमने परंपराएं छोड़ी तो जीव-जंतु विलुप्त होने के कगार पर पहुंच जाएंगे। उनकी प्रजातियों का विकास थम जाएगा। आज हम शेर और चीता को बचाने में जुटे हैं। कुछ साल बाद गाय को ढूंढते फिरेंगे।
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4 comments:

yogesh said...

hamari bhartiya paramprai world men shreshth hain. inko jinda rakhana jaroori hai.

mini said...

ok dud , but why you want a importense to sadn

राहुल यादव said...

ha ha ha badiya talaash ki hai story

कुमार said...

baat saand ki ho ya fir gaaye ki. koi fark nahi padta hai bhai. jisko jo samajh me aata hai wo wohi karta hai. lekin hamara bhi farz banta hai ki galat raaste par chalne waale ko tonkey. isliye we'll keep doing our job with no motto of social service. u also keep doing it.

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