Tuesday, February 16, 2010

पाक से बातचीत पर कैसा ऐतराज ?

पुणे में आतंकी हमला होने से पहले ही भारतीय जनता पार्टी के सारे नेता पाकिस्तान से बातचीत करने के मुद्दे पर सरकार का विरोध करने लगे थे। बम विस्फोट के बाद तो पुरजोर विरोध कर रहे हैं। तर्क है, बातचीत और आतंकवाद एकसाथ नहीं चल सकते। जब तक पाकिस्तान आतंकवादियों को खत्म नहीं करेगा, तब तक बातचीत शुरू नहीं होनी चाहिए। बयानबाजी के अगुवा लाल कृष्ण आडवाणी जी हैं। शायद आडवाणी जी अपने अग्रज और पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के कार्यकाल को भूल गए हैं। उस सरकार में खुद गृहमंत्री थे। हालांकि यह बात दूसरी है कि अब वे कंधार प्लेन हाईजैक पर हुए फैसलों से भी पल्ला झाड़ लेते हैं। हो सकता है कुछ बात याद हों।
सबसे पहले बात करते हैं पाकिस्तान के पूर्व प्रधानमंत्री नवाज शरीफ और भारत के पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की लाहौर शिखर वार्ता की। 20-21 फरवरी 1999 को यह बातचीत हुई। संयुक्त बयान जारी हुए। कारोबार शुरू किया गया और दोनों मुल्कों के बीच रेल, बस यातायात तक शुरू करने का निर्णय लिया गया। सचिव से लेकर प्रधानमंत्री तक ने पाकिस्तान से बात की। महज तीन महीने बाद पाकिस्तान ने करगिल में घुसपैठ की। जंग छिड़ी और सैकड़ों जवान शहीद हो गए। कुछ दिन बाद ही 24 अक्तूबर 1999 को इंडियन एयरलाइंस का प्लेन हाईजैक किया गया। पाक के आतंकवादी छोड़े गए। हालांकि इस फैसले से खुद को आडवाणी जी अलग करार देते हैं। इतना सब कुछ होने के बावजूद भाजपा की सरकार ने पाकिस्तान से बातचीत की। जम्मू-कश्मीर में तो तब भी आतंकवादी हमले हो रहे थे। इसके बावजूद नवाज शरीफ के नेतृत्व वाली लोकतांत्रिक सरकार को उखाडऩे वाले तानाशाह परवेज मुशर्रफ को 15-16 जनवरी 2001 को आगरा बुलाकर शिखर वार्ता (बातचीत) की गई। क्या हुआ, बातचीत का कोई नतीजा नहीं निकला। परवेज मुशर्रफ आगरा में ताजमहल और दिल्ली में अपने पुरखों की हवेली देखकर चला गया। पूरा साल नहीं बीता और 13 दिसंबर 2001 को देश की अस्मिता पर हमला हुआ। लश्कर-ए-तय्यबा और जैश-ए-मोहम्मद के आतंकियों ने संसद पर हमला कर दिया। उसके बाद भी आडवाणी जी की सरकार ने पाकिस्तान की ओर बातचीत के लिए हाथ बढ़ाए रखा। अटल बिहारी वाजपेयी जी और आडवाणी ने कहा था कि बातचीत के लिए भारत हमेशा तैयार है।
अब क्या समस्या है, पाकिस्तान पहले से ज्यादा खुंखार हो गया है या भारतीय जनता पार्टी को अब समझ में आया है कि आतंकवाद और बातचीत साथ-साथ नहीं चल सकते। ऐसा कुछ नहीं है। बल्कि भाजपा केवल परंपरागत विपक्ष की भूमिका का निर्वाह कर रही है। यही हमारे देश के लिए विडंबना रही है कि विपक्ष का मतलब सत्ता पक्ष के अच्छे या बुरे, सभी कामों का विरोध करना है। हमारे नेता राष्टï्रीय हित को ध्यान में रखकर बयान नहीं देते, नीति नहीं बनाते। वोटों का ध्रुवीकरण करने के लिए बोलते हैं। कांग्रेस पर मुस्लिम तुष्टिïकरण का आरोप लगाया जाएगा, तभी तो हिंदु भाजपा की ओर देखेंगे। भाजपा को नितिन गड़करी के रूप में भले ही युवा नेतृत्व मिल गया है लेकिन लीवर तो आडवाणी जी के हाथों में है। वहीं दूसरी ओर कांग्रेस में दिग्विजय सिंह सरीखे नेता आजमगढ़ में जाकर आतंकियों के पक्ष में बयान दे देते हैं। जिससे भाजपा का कांग्रेस पर लगाया गया आरोप आम आदमी को सही नजर आने लगता है। अच्छा रहेगा कि भारत सरकार पाक से बातचीत करे। यह देखना जरूरी नहीं है कि कितनी सफलता मिलेगी। हालांकि भारत में प्राइमरी स्कूल का छात्र भी जानता है कि पाक को बात की नहीं लात की भाषा समझ में आती है। जब तक हम युद्ध के लिए पूरी तरह तैयार नहीं हो जाते जरूरी है बातचीत के जरिए मन टटोलते रहें। कूटनीति भी कहती है कि दिल मिले या न मिले, हाथ मिलाते रहना चाहिए।
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Friday, February 12, 2010

यहां तो सांड से परदा करती हैं महिलाएं

गौवंश की वैदिक काल से ही भारत में पूजा होती है। लेकिन नोएडा में गांव और खेतीबाड़ी खत्म होने के बावजूद गौवंश को जितना सम्मान दिया जाता है शायद ही कहीं मिलता हो। यमुना खादर क्षेत्र के गांवों में सांड को देखकर महिलाएं परदा कर लेती हैं। दरअसल इन गांवों में सांड को ग्राम देवता का दर्जा हासिल है।
नोएडा के 43 गांवों में भूमि अधिग्रहण के चलते खेतीबाड़ी समाप्त हो चुकी है। यमुना खादर क्षेत्र के 19 गांवों में अभी कुछ खेत बाकी हैं। किसान पशुपालन भी कर रहे हैं। कई-कई गाय पालते हैं। गौवंश के उन्नयन पर किसान खासा ध्यान भी देते हैं। हर गांव में दो या तीन सांड हैं। इनके सरक्षण की जिम्मेदारी ग्राम पंचायतों पर है। सांड को मारने या पीटने पर सजा और जुर्माना कर दिया जाता है। ऐसी कई घटनाएं हो चुकी हैं। सांडों से जुड़े इस कानूनी पक्ष के साथ गांवों में पुरानी सामाजिक परंपरा भी कायम है। अगर सामने से सांड आ रहा हो तो गांव की महिलाएं देखकर परदा कर लेती हैं। डर के कारण नहीं बल्कि सम्मान के लिए ऐसा करती हैं। इस बारे में नंगला गांव के निवासी बुजुर्ग उदय सिंह का कहना है कि सांड को ग्राम देवता का दरजा दिया गया है। किवदंती है कि जहां तक सांड के दहाडऩे की आवाज पहुंचती है,वहां तक भूत-प्रेत नहीं फटकते। महाशिवरात्रि के दिन तो लोग सांड को पकवान-मिठाई खिलाते हैं। उदय सिंह इस सामाजिक रवायत की बाबत बताते हैं कि खादर के अधिकांश गांव पहले हरियाणा राज्य में थे। यमुना नदी हरियाणा की ओर चली गई। खेतों को लेकर दोनों ओर के किसान लड़ते थे। वर्ष 1971 में यमुना खादर क्षेत्र में सीमांकन किया गया तो ये गांव उत्तर प्रदेश में शामिल कर लिए गए। सांड को पूजने की परंपरा हरियाणा से यहां आई है।
मांगरौली दोस्तपुर गांव के पूर्व प्रधान कालू राम बताते हैं कि बछड़े को सांड बनने के लिए छोड़ते वक्त गांव की मुहर गरम करके उसकी पीठ पर दागी जाती है। जिससे झुंड में भी उसकी पहचान की जा सके। मुख्य सांड रोजाना घर-घर घूमता है। महिलाएं-बच्चे गुड़ और चने की दाल,रोटी या आटा का पेड़ा खिलाते हैं। सांड को घर के बुजुर्ग की तरह सम्मान देते हैं। कालू राम दुख जताते हैं कि खेतीबाड़ी समाप्त होने से पुरानी परंपराएं समाप्त हो रही हैं।
कुछ भी हो गांव के लोग अभी तक इस वैदिक परंपरा को आगे बढ़ा रहे हैं। हमारे पूर्वजों ने पशु-पक्षियों को संरक्षण देने और उनके वैज्ञानिक लाभ को निरंतर बनाए रखने के लिए इन परंपराओं का विकास किया। हर परंपरा की मूल में वैज्ञानिक दृष्टिïकोण निहित है। अगर हमने परंपराएं छोड़ी तो जीव-जंतु विलुप्त होने के कगार पर पहुंच जाएंगे। उनकी प्रजातियों का विकास थम जाएगा। आज हम शेर और चीता को बचाने में जुटे हैं। कुछ साल बाद गाय को ढूंढते फिरेंगे।
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Tuesday, February 9, 2010

मेधा जी! आपसे यह उम्मीद नहीं थी

नर्मदा नदी को बचाने के लिए सफल आंदोलन चलाने वाली मेधा पाटकर पर न्यायालय को गुमराह करने का आरोप लगा है। उन्होंने अदालत में व्यक्तिगत रूप से पेश नहीं होने के लिए खराब स्वास्थ्य का हवाला दिया। एक मेडीकल सर्टिफिकेट दिया, जिसे फर्जी माना गया है। वादी द्वारा विरोध किए जाने पर इसका पता लगा और अदालत ने मेधा पाटेकर से जवाब मांग लिया है। इस कृत्य लिए अदालत क्या कार्यवाही करेगी या नहीं करेगी, कोई फर्क नहीं पड़ता। रोज न जाने कितने लोग ऐसा कर रहे हैं। लेकिन इस प्रकरण से एक ऐसी महिला की छवि को धक्का पहुंचा है जिसके नक्शेकदम पर लड़कियां ही नहीं लड़के भी चलना चाहते हैं। मेधा पाटेकर, किरण बेदी और अरुंधति राय सरीखी महिलाओं ने आजाद भारत की नारी को पहचान दी है। इनसे ऐसी अपेक्षा कोई नहीं करेगा।
मेधा पाटेकर एक स्वतंत्रता संग्राम सैनानी परिवार से ताल्लुक रखती हैं। यहां बताना जरूरी होगा कि उनके पिता वसंत खानोलकर मुंबई के बड़े ट्रेड यूनियन लीडर और फ्रीडम फाइटर थे। माता इंदु महिलाओं के संगठन स्वदार की अग्रणी सदस्य थीं। स्वदार संस्था आर्थिक, शैक्षिक, सामाजिक और स्वास्थ्य समस्याओं से ग्रसित महिलाओं के लिए काम करती थी। सामाजिक पृष्ठïभूमि वाले परिवार की मेधा पाटेकर ने नर्मदा बचाओ आंदोलन खड़ा किया। मानवाधिकारों के लिए काम किया। राइट लाइवलीहुड अवार्ड, दीनानाथ मंगेसकर अवार्ड, गोल्डन इनवायरमेंट प्राइज, ग्रीन रिब्बन अवार्ड समेत देश-दुनिया के तमाम सम्मान उन्होंने हासिल किए।
ये सारी बातें बतानी इसलिए लाजिमी हो जाती हैं कि जो लोग क्रप्ट सिस्टम के खिलाफ लड़ाई लड़ रहे हैं, वे खुद इसका हिस्सा कैसे बन सकते हैं। मेधा पाटेकर पर कोई ऐसा अभियोग नहीं चल रहा था जिसके लिए उन्हें अपराधी मान लिया जाता। जिस स्तर पर वे काम कर रही हैं, वहां मानहानि जैसे मामले अहमियत नहीं रखते। हालांकि बड़े होने का मतलब दूसरों को अपमानित करना नहीं है। अदालत में उपस्थित होना कोई बुरी बात नहीं होती। अगर रियायत लेनी थी तो वाजिब कारण बताकर मिल सकती थी। शायद न्यायालय उनके जैसी शख्सियत के लिए स्वत: नरमी बरतता। वैसे भी न्यायालय मानते हैं कि संभ्रांत व्यक्ति जेल नहीं जाने चाहिएं। फर्जी मेडीकल अदालत को देना जाहिर करता है कि ऐसे कद्दावर और सिद्धांतवादी लोग भी न्याय प्रक्रिया को गलत ढंग से प्रभावित करना चाहते हैं। जैसा देश में आम बात है। लेकिन मेधा पाटेकर के लिए ऐसा करने से शायद जेल चले जाना अच्छा होता। यहां एक बात और जोडऩा चाहूंगा कि परिस्थितियों ने भगवान राम से भी सीता सती को वनवास देने का अपराध करवा दिया था।
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Sunday, February 7, 2010

वरुण जी! जरा सोचकर बोला करो

परिवार के बूते राजनीति में आने वाले युवकों की देश में लंबी लाइन है। लेकिन ये सारे दो श्रेणियों में बंटे नजर आते हैं। पहली श्रेणी में वे युवराज हैं जो अपनी शालीनता के कारण आम आदमी ने स्वीकार कर लिए हैं। मसलन राहुल गांधी, ज्योतिर्रादित्य सिंधिया, अगाथा संगमा, अखिलेश यादव और जयंत चौधरी आदि। दूसरी श्रेणी में ऐसे युवा नेता है जो आए तो बड़े राजनीतिक परिवारों से हैं लेकिन जबान के कारण उनका नाम जुबान पर आते ही आम आदमी नाक-भोंह सिकोडऩे लगता है। वरुण गांधी, उद्धव ठाकरे और राज ठाकरे इसी जमात में हैं।
राज और उद्धव के बारे में तो बात करना ही बेकार है। यहां मूल उद्देश्य वरुण गांधी के बारे में बात करना है। वरुण गांधी उस शख्सियत संजय गांधी का बेटा है, जिसे देश की बागडोर संभालने का मौका तो नहीं मिला लेकिन वही एक व्यक्ति था, जिसने रसातल में पहुंची कांग्रेस और इंदिरा गांधी को उबारा। 1975 में आपातकाल के बाद वाले बुरे दौर में संजय गांधी के बड़े भाई और बाद में देश के प्रधानमंत्री बने राजीव गांधी तो भारत में भी नहीं थे। 1977 में हारी कांग्रेस और इंदिरा गांधी को संजय गांधी ने अपने बूते 1980 में वापसी करवाई। भ्रष्टïाचार के आरोप लगने के बावजूद संजय गांधी मारूति कार लेकर आए। हालांकि दुर्भाग्यवश उनके जीते जी कार सड़क पर नहीं उतरी लेकिन बाद में यह आम आदमी की कार बनी। संजय गांधी ने दृढ़ इच्छाशक्ति के बूते चौधरी चरण सिंह, राज नारायण और मोरारजी देसाई सरीखे खांटी नेताओं को शिकस्त दी। लेकिन वरुण गांधी ऐसे नजर नहीं आते। वरुण अभी तक अपने विवादस्पद बयानात के कारण सुर्खियों में रहे हैं। लोकसभा चुनाव के दौरान हिंदुवादी भावनाएं भड़काकर छा तो गए लेकिन पढ़े-लिखे तबके में छवि खराब हो गई। भारतीय जनता पार्टी को फायदा कम और नुकसान ज्यादा हुआ। एनएसए लगी और जेल जाना पड़ा। भाजपा के बड़े नेताओं ने भी वरुण को गलत ठहराया। कोई अगर यह कहता है कि संजय गांधी ने भी 1976 में जामा मस्जिद इलाके में मुसलमानों को परेशान किया। यह गलत है। जामा मस्जिद स्लम प्रकरण कोई हिंदुवादी गतिविधि नहीं थी। दिल्ली में बढ़ती भीड़ पर जो बात आज शीला दीक्षित कह रही हैं, वह संजय गांधी ने तब कही थी। परिवार नियोजन उनकी सार्वजनिक विचारधारा थी। जो आज देश के लिए जरूरी हो चुकी है। बीते शनिवार को जब राहुल गांधी मुंबई दौरा करके युवाओं का दिल जीत रहे थे तो उससे अगले दिन वरुण गांधी ने बुलंदशहर में महंगाई के मुद्दे पर बचकाना बयान दिया। उन्होंने केंद्रीय कृषि मंत्री शरद पवार को रावण और उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती को शूर्पणखा कह दिया। पढ़े-लिखे देश में भाजपा का मंदिर मुद्दा ज्यादा दिन नहीं चला तो भला ऐसी बातें कौन सुनेगा। वरुण गांधी को चाहिए कि एक दमदार युवा नेता के रूप में उभरकर सामने आएं। उनके साथ जुझारू पिता और सुलझी राजनकता मां का नाम जुड़ा है। लोगों को जितनी उम्मीदें राहुल गांधी से हैं, उससे कहीं ज्यादा वरुण गांधी से हैं। वरुण भाई! जरा सोच-समझकर बात कहा करो। नहीं एक दिन आएगा कि लोग आपकी बात सुनकर अनसुनी करने लगेंगे। ऐसी बातों पर लोग केवल तालियां बजाते हैं।

Friday, February 5, 2010

मैं धारक को एक हजार रुपये अदा करने...

पिछले गुरूवार की सुबह सोकर उठा तो न जाने क्यों मुझे ताजमहल देखने की सूझी। फटाफट नहाया और पत्नी से नाश्ता बनाकर देने को कहा। पत्नी ने छुट्टी के बावजूद बाहर जाने की बात पर थोड़ी नाक-बोंह सिकोड़ी। मैंने बहाना कर दिया कि दिल्ली किसी काम से जा रहा हूं। शाम तक वापस आ जाउंगा। मैंने सराय काले खां स्टेशन से बस पकड़ी और दोपहर दो बजे तक ताजमहल के सामने पहुंच गया। जी भरकर ताजमहल को देखा और हरि पर्वत (आगरा में एक स्थान) आकर ढाबे पर जी भरकर खाना खाया। भगवान टॉकिज के सामने से शाम करीब पांच बजे फिर बस पकड़ी। रात नौ बजे दिल्ली-हरियाणा के बदरपुर बॉर्डर पर जाम लग गया। चार घंटे सफर के और चार घंटे जाम के झेलकर तकरीबन रात एक बजे फिर सराय काले खां बस अड्डे पर था। इतना घना कोहरा कि एक हाथ को दूसरा नजर नहीं आ रहा था। ऑटो वाले से पूछा नोएडा चलोगे, तपाक से ढाई सौ रुपये मांगे। लंबी जद्दोजहद के बाद एक सौ अस्सी रुपये में नोएडा के सेक्टर बारह तक छोडऩे के लिए राजी हो गया। ऑटो में बैठते ही मुझे कुछ याद आया और मैंने जेब से बटुवा निकालकर उसे पांच सौ रुपये का नोट थमाया। मैंने कहा, यह चलेगा। उसने मेरी ओर देखा और बोला नहीं। उसकी बात सुनकर कड़ाके की ठंड में मुझे पसीना आ गया। अब समस्या नोएडा पहुंचने की नहीं पांच सौ रुपये के नोट को चलाने की थी। एक घंटे का प्रयास विफल गया और रात के दो बजे तक नोट नहीं चला। आगरा से एक और बस आ गई। एक मेरी उम्र का युवक ब्रीफकेस, बैग और किताब लेकर उतरा। उसने ऑटो वाले से आवाज लगाकर नोएडा चलने को कहा। किराए को लेकर चिकचिक शुरू हुई। ऑटो वाला दो सौ रुपये से कम में चलने को तैयार नहीं था। मैं बीच में कूद पड़ा और ऑटो वाले से कहा मुझे तो एक सौ अस्सी में ले जा रहा था। युवक ने मेरे से पूछा आप क्यों नहीं गए। मैंने नोट की समस्या बताई। उसने दया की और कहा आप मेरे साथ चलिए। रास्ते में दोनों की बात हुई पता चला कि वह भी माखन लाल चतुर्वेदी विश्वविद्यालय से जर्नलिस्म की पढ़ाई कर रहा है। मेरा परिचय जानकर बड़ा खुश हुआ। नोएडा पहुंचा तो युवक ने मेरे हिस्से के रुपये लेने से इंकार कर दिया। मैं मन में सोच रहा था कि अगर यह सौ रुपये ले ले तो मेरी मुसीबत कट जाए। लेकिन वह जिद्दी निकला और चला गया। नोट तो रात को चलना ही नहीं था। मजबूरन बारह किलोमीटर पैदल चलकर सवेरे पांच बजे घर पहुंचा।
आप सोच रहे होंगे कि मैं यात्रा वृतांत आपको क्यों पढ़ा रहा हूं। यह मेरा यात्रा वृतांत नहीं, हर भारतीय की मुसीबत है। हम अपने देश में अपनी करेंसी लेकर घूमते हैं लेकिन लोग पांच सौ या हजार रुपये का नोट लेते हिचकते हैं। सोचते हैं, नकली होगा। आपका पड़ोसी दुकानदार छुट्टे देने से इंकार कर देगा। जबकि नकली नोट निकलने पर वह तो आपसे बदल सकता है। आपकी जेब में रखा हजार का नोट आपको भिखारी बनने के लिए मजबूर कर देगा। सरकार को सोचना चाहिए कि इस समस्या को और भयावह नहीं होने दे। इससे बुरी बात किसी सरकार के लिए और कुछ नहीं हो सकती कि उसके ही देश में उसकी मुद्रा पर उसके लोग शक करने लगें। अगर हालात नहीं संभले तो रिजर्व बैंक के गवर्नर का नोटों पर छपा वचन किसी काम का नहीं रहेगा। ये सबसे बड़ा आतंकवादी हमला है।

Tuesday, February 2, 2010

केंद्र और राज्य के बीच पिस रहा किसान

मैंने अपनी प्राथमिक शिक्षा के दौरान सातवीं कक्षा में राष्टï्रकवि मैथिली शरण गुप्त की पद्य रचना 'ग्राम देवताÓ पढ़ी। मास्टर जी ने कक्षा में किसान की महिमा का बखान किया तो बेहद खुशी हुई। किसान परिवार में पैदा होने का गर्व हुआ। उच्च शिक्षा लेने के वक्त कालजयी रचनाकार मुंशी प्रेमचंद का उपन्यास 'गोदानÓ पढ़ा। गुप्त जी के 'ग्राम देवताÓ तो अन्नदाता और भगवान समान थे, लेकिन मुंशी जी का 'होरीÓ दीन-हीन नजर आया। दोनों रचनाओं का फर्क और मर्म अब समझ आया है।
देश के लाखों गांवों में बसे करोड़ों किसान दो बातों में देवता ही हैं। हर पांच, दो या तीन साल में चुनाव के वक्त और देश पर आर्थिक संकट में इन्हें याद किया जाता है। किसानों की चुनावी खुशामद तो सभी ने देखी है। 1991 और 2009 के आर्थिक संकट को गुजरे भी ज्यादा समय नहीं हुआ है। इन दिक्कतों से उबारने वाले किसान को कुछ नहीं मिला। इसमें कोई शक नहीं कि 1991 के बाद लागू वैश्वीकरण की नीति से देश ने सबसे ज्यादा तरक्की की है। लेकिन तब से किसी सरकार ने किसान की तरफ मुड़कर देखा भी नहीं। 2009 की मंदी आई और चली गई। अपने देश पर खास असर नही हुआ। खुद सरकार ने कहा कि कृषि प्रधानता के कारण बच गए। लेकिन सवाल उठता है कि कब तक बचेंगे? किसान से जुड़े कानून और हितों पर संजीदगी से केंद्र और राज्य, दोनों को काम करना पड़ेगा। सबसे ज्यादा कानून राजस्व मामलों से जुड़े हैं। अकेले उत्तर प्रदेश में सत्रह अधिनियम लागू हैं। किसानों को इनका लाभ मिलने की बजाय नुकसान हो रहा है। दीवानी और राजस्व न्यायालयों में 10 लाख से ज्यादा मुकदमे लंबित हैं। फिलहाल भूमि अधिग्रहण को लेकर सबसे ज्यादा हायतौबा मची है। इस प्रक्रिया के लिए इस्तेमाल होने वाला अधिनियम (1894 में पारित अधिनियम) अप्रासंगिक है। पिछले सालों में घोड़ी-बछेड़ा, बझैड़ा, सिंगुर और नंदीग्राम में किसानों पर गोलियां चलीं। संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन और कांग्रेस की अध्यक्षा सोनिया गांधी ने लोकसभा चुनाव सामने देखकर अधिनियम को बदलने की घोषणा दादरी (गौतमबुद्धनगर) में की थी। अमल की तैयारी भी हुई। भूमि अधिग्रहण अधिनियम (संशोधित)-2007 बिल संख्या 97 के माध्यम से तेरहवीं लोकसभा के पहले सत्र में रखा जाना था। लेकिन पश्चिम बंगाल के विधानसभा चुनाव से ठीक पहले इस अधिनियम को सदन में लाने का दबाव गठबंधन के एक घटक दल ने बनाया था। दरअसल, उस समय अधिनियम पारित होगा तो किसानों के वोट बटोरने के लिए भी मुफीद रहेगा। उत्तर प्रदेश भी उस वक्त असेंबली चुनाव के मुहाने पर खड़ा होगा। यह कानून किसानों का खून बहा रहा है, जो हमें दिखता है। कई दूसरे कानून कहीं ज्यादा परेशान कर रहे हैं। जिनपर किसी का ध्यान नहीं है। केंद्र हो या राज्य, इनमें सरकार चलाने वाले दल अपने हितों की राजनीति कर रहे हैं। किसान का हित तभी सधेगा, जब ये दोनों सत्ता केंद्र एक विचारधारा पर काम करेंगे। कुछ और कानून जैसे उमा शंकर दीक्षित एवार्ड। इसे हरियाणा-उत्तर प्रदेश एलटरनेशन ऑफ बाउंड्रीज एक्ट-1979 के नाम से भी जाना जाता है। यह अधिनियम भारत सरकार के कानून, विधि एवं कंपनी मामलों के मंत्रालय ने 12 जून 1979 को पारित किया था। इसका मकसद यमुना नदी के बहाव के कारण दोनों राज्यों के किसानों के बीच खेतों की सीमा को लेकर उत्पन्न विवादों को निपटाना था। तीस साल बाद भी फसलों की बुवाई और कटाई के वक्त दोनों राज्यों के किसान एक-दूसरे पर गोलियां चलाते हैं। मौत होती हैं। जिलाधिकारी, मंडलायुक्त और मुख्य सचिव स्तर के अफसर बैठक करते हैं। समाधान नहीं होता। यूपी के सहारनपुर से बुलंदशहर और हरियाणा के करनाल से फरीदाबाद तक हजारों किसान झगड़ रहे हैं। फसलों में आग लगा रहे हैं। खड़े खेत उजाड़ रहे हैं।
भूमि बंदोबस्त अधिनियमों ने किसानों को लाभ पहुंचाया है। समस्याएं भी कम पैदा नहीं की हैं। गंगा और यमुना के खादर क्षेत्रों में भूमि व्यवस्था के लिए गढ़-उन्नाव बंदोबस्त अधिनियम 06 सितंबर 1996 को लागू हुआ। गौतमबुद्धनगर के नंगला शाकपुर निवासी किसान उदय सिंह (85 वर्ष) बताते हैं, कभी-कभी राजस्व विभाग के कर्मचारी आते हैं। प्रधान के घर या पंचायत घर में दिन बिताकर चले जाते हैं। उन्हें नदी किनारे वाले अपने खेतों का पता नहीं है। यह समस्या अकेले उदय सिंह की नहीं उत्तर प्रदेश के 38 जिलों में हजारों किसानों की है। यूपी रेवेन्यू एक्ट-1901 का इस्तेमाल कैसे यथोचित हो सकता है। नोएडा और ग्रेटर नोएडा के किसानों को दो बड़ी सुविधाएं (भूमि अधिग्रहण के बदले छह फीसदी विकसित आबादी भूमि और किसान की सहमति पर भूमि अधिग्रहण के लिए करार नियमावली) देने वाले उत्तर प्रदेश के पूर्व राजस्व मंत्री वीरेंद्र सिंह सिरोही दो टूक कहते हैं, सबसे बुरी हालत किसानों की है। फिलहाल राजस्व मामलों से जुड़े जितने कानून और अधिनियम हैं, उनके अधिकांश हिस्से अप्रासंगिक हो गए हैं। जमींदारी उन्मूलन अधिनियम, चकबंदी बंदोबस्त अधिनियम, भूमि अधिग्रहण अधिनियम और सीलिंग एक्ट की चंद धाराओं का प्रयोग राजस्व अदालत एवं प्रशासन कर रहा है। सारे अधिनियमों को नए सिरे से परिभाषित और परिमार्जित करने की जरूरत है। केवल एक सुव्यवस्थित अधिनियम होना चाहिए। यह काम न तो अकेला राज्य कर सकता है और न केंद्र। राजस्व कानूनों में सुधार के लिए दोनों को संयुक्त होकर कार्य करना पड़ेगा। अगर 1947 से 1973 तक केंद्र और राज्य सहमति के आधार पर कार्य नहीं करते तो आज भी देश में जमींदारी प्रथा होती। सरकारों ने दृढ़ निश्चय से काम किया। 1948, 1950, 1954, 1955, 1959, 1971 और 1973तक जब भी जरूरत पड़ी जमींदारी उन्मूलन अधिनियम एवं भूमि बंदोबस्त व्यवस्था को संशोधित किया। तब जाकर रैय्यतदारी, मालगुजारी और जोतदारी तंत्र को समाप्त किया जा सका। इस मुद्दे से जुड़ा अपने कार्यकाल का एक वाकया सुनाया। 'पंडित दीन दयाल उपाध्याय का गांव जनपद मथुरा में नंगला चंद्रभान है। प्रदेश सरकार ने गांव का नाम बदलकर दीन दयाल धाम करने का प्रस्ताव बनाया। यह कोई बड़ी बात नहीं थी। लेकिन नाम बदलने में दो साल लगे। जबकि केंद्र और राज्य, दोनों सरकार भारतीय जनता पार्टी की थीं। गांव और किसान का सुधार करने के लिए दोनों की विचारधारा का मेल खाना जरूरी है। कोई एक कुछ नहीं कर पाएगा।Ó
बात दोबारा १९९१ पर लौटकर आती है। तब से अब तक सरकारें बैसाखी पर चल रही हैं। चंद्रशेखर, पीवी नरसिंहा राव, अटल बिहारी वाजपेयी और मनमोहन सिंह के कार्यकाल क्षेत्रीय दलों से हुए गठबंधन पर आधारित हैं। राज्यों में क्षेत्रीय दल हावी हो गए। जिस दल की सरकार राज्य में होती है, उसका विरोधी दल केंद्र को समर्थन देता है। चाहकर भी केंद्र और राज्य एक नाव पर सवार नहीं हो पाते। उत्तर प्रदेश में अरसे बाद बहुजन समाज पार्टी ने स्पष्टï बहुमत की सरकार बनाई। परंतु केंद्र से इसका भी छत्तीस का आंकड़ा है। मध्य प्रदेश, बिहार, उत्तरांचल, पंजाब, कर्नाटक, गुजरात, झारखंड, छत्तीसगढ़, हिमाचल और पश्चिम बंगाल जैसे कृषि प्रधान राज्यों में कांग्रेस के विरोधी दल शासन कर रहे हैं। फिर किसान का भला कैसे होगा? महीनाभर पहले केंद्र और राज्य की परस्पर विरोधी नीतियों की बानगी उत्तर प्रदेश के गन्ना किसानों के आक्रोश के रूप में दिखाई पड़ी थी।
ऐसे में सरकारों को चाहिए कि सबसे बड़े वोट बैंक का भला करने के लिए तो सहमति बनाएं। दलगत विचारधारा से ऊपर उठकर सरकार के रूप में काम करें। अगर और ज्यादा देर तक किसान हितों को नजरअंदाज किया गया तो सरकारों में कृषि मंत्री बनने के लिए मारामारी का आलम खत्म हो जाएगा। किसान परिवारों के युवा खेतीबाड़ी से दूर भाग रहे हैं। कृषि उपज लगातार घट रही है। गुस्से के चलते किसानों में हल की बजाय हथियार उठाने की प्रवृत्ति बढ़ रही है। और ज्यादा देर भूदान आंदोलन, जमींदारी खात्मा और हरित क्रांति जैसे स्वर्णिम अध्यायों पर कालिख पोत सकती है। राजनीति करने वालों को सोचना चाहिए कि इस देश का वास्तविक विकास 'होरीÓ को 'ग्राम देवताÓ बनाने से होगा। केंद्र और राज्य के दो पाटों के बीच पिसते किसान को बचाना अब लाजिमी हो गया है।
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Monday, February 1, 2010

यूरिया से हो सकती है 'बमों की खेती'

खेतीबाड़ी के काम आने वाला यूरिया किसान ही नहीं आतंकी भी इस्तेमाल कर सकते हैं। सुनकर अचरज होगा लेकिन बात सही है। सीमाओं पर चौकसी बढऩे के बाद खाली हाथ आने वाले आतंकी अपने मंसूबे पूरे करने के लिए देसी चीजों का इस्तेमाल करते हैं। विशेषज्ञों का मानना है कि औद्योगिक शहरों में यूरिया को विस्फोटक में तब्दील करना बड़ा आसान है।
चंद दिन पहले अफगानिस्तान में यूरिया का आयात, विक्रय और प्रयोग पूरी तरह प्रतिबंधित कर दिया गया है। खुद राष्टï्रपति हामिद करजई ने वहां के कृषि मंत्रालय को आदेश दिया। किसानों से कहा गया है कि पंद्रह दिन के अंदर सारा यूरिया कृषि विभाग को सौंप दें। दरअसल वहां आतंकवादी इसका इस्तेमाल बम बनाने के लिए कर रहे हैं। इराक में भी यूरिया नहीं मिलता। अमेरिकी फौज के कहने पर तीन साल पहले यूरिया प्रतिबंधित कर दिया गया है। जबकि अपने देश में यूरिया सुलभ है। कहीं भी किसी शहर या गांव में जितना चाहें खरीद सकते हैं। इंटेलीजेंस को यह बात खटक रही है।
कारण पर थोड़ा सा गौर करने की जररूत है। यूरिया में 46 फीसदी नाइट्रोजन है। इसमें नाइट्रिक एसिड मिलाने पर यूरिया नाइट्रेट बनता है। यह यौगिक ट्राईनाइट्रोटाल्विन (टीएनटी) जितना खतरनाक विस्फोटक होता है। इसका पहली बार प्रयोग 26 फरवरी 1993 को अमेरिका के वल्र्ड ट्रेड सेंटर पर आतंकियों द्वारा किया गया था। जिसे बाद में अल कायदा ने 11 सितंबर 2001 को नेस्तानाबूद कर दिया। भारत के औद्योगिक शहरों में यूरिया और नाइट्रिक एसिड आसानी से मिलते हैं। सबसे पहले विषय विशेषज्ञ की राय पर गौर करते हैं। भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (कानपुर) में रसायन के प्रोफेसर आर गुरूनाथ कहते हैं कि यूरिया से विस्फोटक बनाना बेहद आसान काम है। प्रोफेसर याद दिलाते हैं कि अमेरिका के ओकलाहोम शहर में 1993 के आसपास यूरिया से लदे एक ट्रक को पैट्रोल के टेंकर से टकराकर भीषण विस्फोट को अंजाम दिया गया था। आतंकी इराक और अफगानिस्तान में ऐसा लगातार कर रहे हैं।
दिल्ली के पूर्व पुलिस आयुक्त तिलक राज कक्कड़ मानते हैं कि सख्ती होगी तो आतंकी खाली हाथ आएंगे। यहां देसी चीजों का इस्तेमाल करेंगे। वे जोड़ते हैं कि अपने यहां इराक या अफगानिस्तान जैसे हालात नहीं हैं। लोगों में आतंक के खिलाफ जागरूकता बढ़ी है। दूसरी ओर खेती के लिए यूरिया बेहद जरूरी है। ऐसे में यूरिया में कुछ चीजें मिला दी जाएं, जिससे इसका दुरुपयोग न हो सके और खेती भी प्रभावित नहीं हो।
देश की यूरिया बनाने वाली अग्रणी कंपनी नेशनल फर्टिलाइजर्स लिमिटेड के कार्यकारी निदेशक (तकनीकी) आरके भाटिया का कहना है कि यूरिया केवल वितरकों और किसानों के लिए है। किसी अन्य को नहीं दिया जाता। यह भी मानते हैं कि सुलभ होने के कारण गलत हाथ इसका इस्तेमाल आसानी से कर सकते हैं। इस समस्या के बारे में कभी सोचा भी नहीं गया है। यह काम मंत्रालय स्तर का है लेकिन इस मुद्दे पर सरकार में बात जरूर करेंगे।
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मेरी राय
इस लंबी तकरीर के पीछे मैं यह कहना चाहता हूं कि आजकल के बेहद संवेदनशील माहौल में सरकार को इस बात पर विचार करना चाहिए। हम कोशिश करते हैं कि आतंकवादी देश में नहीं घुसें। अगर वे घुस भी आएं तो कम से कम हमारी ही किसी चीज को हथियार तो नहीं बनाएं। सरकार प्रभावी कदम उठाए। वैसे भी यूरिया में पोटेशियम या फास्फेट मिलाकर इसकी भयावहता को समाप्त करना आसान है।