Tuesday, February 2, 2010

केंद्र और राज्य के बीच पिस रहा किसान

मैंने अपनी प्राथमिक शिक्षा के दौरान सातवीं कक्षा में राष्टï्रकवि मैथिली शरण गुप्त की पद्य रचना 'ग्राम देवताÓ पढ़ी। मास्टर जी ने कक्षा में किसान की महिमा का बखान किया तो बेहद खुशी हुई। किसान परिवार में पैदा होने का गर्व हुआ। उच्च शिक्षा लेने के वक्त कालजयी रचनाकार मुंशी प्रेमचंद का उपन्यास 'गोदानÓ पढ़ा। गुप्त जी के 'ग्राम देवताÓ तो अन्नदाता और भगवान समान थे, लेकिन मुंशी जी का 'होरीÓ दीन-हीन नजर आया। दोनों रचनाओं का फर्क और मर्म अब समझ आया है।
देश के लाखों गांवों में बसे करोड़ों किसान दो बातों में देवता ही हैं। हर पांच, दो या तीन साल में चुनाव के वक्त और देश पर आर्थिक संकट में इन्हें याद किया जाता है। किसानों की चुनावी खुशामद तो सभी ने देखी है। 1991 और 2009 के आर्थिक संकट को गुजरे भी ज्यादा समय नहीं हुआ है। इन दिक्कतों से उबारने वाले किसान को कुछ नहीं मिला। इसमें कोई शक नहीं कि 1991 के बाद लागू वैश्वीकरण की नीति से देश ने सबसे ज्यादा तरक्की की है। लेकिन तब से किसी सरकार ने किसान की तरफ मुड़कर देखा भी नहीं। 2009 की मंदी आई और चली गई। अपने देश पर खास असर नही हुआ। खुद सरकार ने कहा कि कृषि प्रधानता के कारण बच गए। लेकिन सवाल उठता है कि कब तक बचेंगे? किसान से जुड़े कानून और हितों पर संजीदगी से केंद्र और राज्य, दोनों को काम करना पड़ेगा। सबसे ज्यादा कानून राजस्व मामलों से जुड़े हैं। अकेले उत्तर प्रदेश में सत्रह अधिनियम लागू हैं। किसानों को इनका लाभ मिलने की बजाय नुकसान हो रहा है। दीवानी और राजस्व न्यायालयों में 10 लाख से ज्यादा मुकदमे लंबित हैं। फिलहाल भूमि अधिग्रहण को लेकर सबसे ज्यादा हायतौबा मची है। इस प्रक्रिया के लिए इस्तेमाल होने वाला अधिनियम (1894 में पारित अधिनियम) अप्रासंगिक है। पिछले सालों में घोड़ी-बछेड़ा, बझैड़ा, सिंगुर और नंदीग्राम में किसानों पर गोलियां चलीं। संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन और कांग्रेस की अध्यक्षा सोनिया गांधी ने लोकसभा चुनाव सामने देखकर अधिनियम को बदलने की घोषणा दादरी (गौतमबुद्धनगर) में की थी। अमल की तैयारी भी हुई। भूमि अधिग्रहण अधिनियम (संशोधित)-2007 बिल संख्या 97 के माध्यम से तेरहवीं लोकसभा के पहले सत्र में रखा जाना था। लेकिन पश्चिम बंगाल के विधानसभा चुनाव से ठीक पहले इस अधिनियम को सदन में लाने का दबाव गठबंधन के एक घटक दल ने बनाया था। दरअसल, उस समय अधिनियम पारित होगा तो किसानों के वोट बटोरने के लिए भी मुफीद रहेगा। उत्तर प्रदेश भी उस वक्त असेंबली चुनाव के मुहाने पर खड़ा होगा। यह कानून किसानों का खून बहा रहा है, जो हमें दिखता है। कई दूसरे कानून कहीं ज्यादा परेशान कर रहे हैं। जिनपर किसी का ध्यान नहीं है। केंद्र हो या राज्य, इनमें सरकार चलाने वाले दल अपने हितों की राजनीति कर रहे हैं। किसान का हित तभी सधेगा, जब ये दोनों सत्ता केंद्र एक विचारधारा पर काम करेंगे। कुछ और कानून जैसे उमा शंकर दीक्षित एवार्ड। इसे हरियाणा-उत्तर प्रदेश एलटरनेशन ऑफ बाउंड्रीज एक्ट-1979 के नाम से भी जाना जाता है। यह अधिनियम भारत सरकार के कानून, विधि एवं कंपनी मामलों के मंत्रालय ने 12 जून 1979 को पारित किया था। इसका मकसद यमुना नदी के बहाव के कारण दोनों राज्यों के किसानों के बीच खेतों की सीमा को लेकर उत्पन्न विवादों को निपटाना था। तीस साल बाद भी फसलों की बुवाई और कटाई के वक्त दोनों राज्यों के किसान एक-दूसरे पर गोलियां चलाते हैं। मौत होती हैं। जिलाधिकारी, मंडलायुक्त और मुख्य सचिव स्तर के अफसर बैठक करते हैं। समाधान नहीं होता। यूपी के सहारनपुर से बुलंदशहर और हरियाणा के करनाल से फरीदाबाद तक हजारों किसान झगड़ रहे हैं। फसलों में आग लगा रहे हैं। खड़े खेत उजाड़ रहे हैं।
भूमि बंदोबस्त अधिनियमों ने किसानों को लाभ पहुंचाया है। समस्याएं भी कम पैदा नहीं की हैं। गंगा और यमुना के खादर क्षेत्रों में भूमि व्यवस्था के लिए गढ़-उन्नाव बंदोबस्त अधिनियम 06 सितंबर 1996 को लागू हुआ। गौतमबुद्धनगर के नंगला शाकपुर निवासी किसान उदय सिंह (85 वर्ष) बताते हैं, कभी-कभी राजस्व विभाग के कर्मचारी आते हैं। प्रधान के घर या पंचायत घर में दिन बिताकर चले जाते हैं। उन्हें नदी किनारे वाले अपने खेतों का पता नहीं है। यह समस्या अकेले उदय सिंह की नहीं उत्तर प्रदेश के 38 जिलों में हजारों किसानों की है। यूपी रेवेन्यू एक्ट-1901 का इस्तेमाल कैसे यथोचित हो सकता है। नोएडा और ग्रेटर नोएडा के किसानों को दो बड़ी सुविधाएं (भूमि अधिग्रहण के बदले छह फीसदी विकसित आबादी भूमि और किसान की सहमति पर भूमि अधिग्रहण के लिए करार नियमावली) देने वाले उत्तर प्रदेश के पूर्व राजस्व मंत्री वीरेंद्र सिंह सिरोही दो टूक कहते हैं, सबसे बुरी हालत किसानों की है। फिलहाल राजस्व मामलों से जुड़े जितने कानून और अधिनियम हैं, उनके अधिकांश हिस्से अप्रासंगिक हो गए हैं। जमींदारी उन्मूलन अधिनियम, चकबंदी बंदोबस्त अधिनियम, भूमि अधिग्रहण अधिनियम और सीलिंग एक्ट की चंद धाराओं का प्रयोग राजस्व अदालत एवं प्रशासन कर रहा है। सारे अधिनियमों को नए सिरे से परिभाषित और परिमार्जित करने की जरूरत है। केवल एक सुव्यवस्थित अधिनियम होना चाहिए। यह काम न तो अकेला राज्य कर सकता है और न केंद्र। राजस्व कानूनों में सुधार के लिए दोनों को संयुक्त होकर कार्य करना पड़ेगा। अगर 1947 से 1973 तक केंद्र और राज्य सहमति के आधार पर कार्य नहीं करते तो आज भी देश में जमींदारी प्रथा होती। सरकारों ने दृढ़ निश्चय से काम किया। 1948, 1950, 1954, 1955, 1959, 1971 और 1973तक जब भी जरूरत पड़ी जमींदारी उन्मूलन अधिनियम एवं भूमि बंदोबस्त व्यवस्था को संशोधित किया। तब जाकर रैय्यतदारी, मालगुजारी और जोतदारी तंत्र को समाप्त किया जा सका। इस मुद्दे से जुड़ा अपने कार्यकाल का एक वाकया सुनाया। 'पंडित दीन दयाल उपाध्याय का गांव जनपद मथुरा में नंगला चंद्रभान है। प्रदेश सरकार ने गांव का नाम बदलकर दीन दयाल धाम करने का प्रस्ताव बनाया। यह कोई बड़ी बात नहीं थी। लेकिन नाम बदलने में दो साल लगे। जबकि केंद्र और राज्य, दोनों सरकार भारतीय जनता पार्टी की थीं। गांव और किसान का सुधार करने के लिए दोनों की विचारधारा का मेल खाना जरूरी है। कोई एक कुछ नहीं कर पाएगा।Ó
बात दोबारा १९९१ पर लौटकर आती है। तब से अब तक सरकारें बैसाखी पर चल रही हैं। चंद्रशेखर, पीवी नरसिंहा राव, अटल बिहारी वाजपेयी और मनमोहन सिंह के कार्यकाल क्षेत्रीय दलों से हुए गठबंधन पर आधारित हैं। राज्यों में क्षेत्रीय दल हावी हो गए। जिस दल की सरकार राज्य में होती है, उसका विरोधी दल केंद्र को समर्थन देता है। चाहकर भी केंद्र और राज्य एक नाव पर सवार नहीं हो पाते। उत्तर प्रदेश में अरसे बाद बहुजन समाज पार्टी ने स्पष्टï बहुमत की सरकार बनाई। परंतु केंद्र से इसका भी छत्तीस का आंकड़ा है। मध्य प्रदेश, बिहार, उत्तरांचल, पंजाब, कर्नाटक, गुजरात, झारखंड, छत्तीसगढ़, हिमाचल और पश्चिम बंगाल जैसे कृषि प्रधान राज्यों में कांग्रेस के विरोधी दल शासन कर रहे हैं। फिर किसान का भला कैसे होगा? महीनाभर पहले केंद्र और राज्य की परस्पर विरोधी नीतियों की बानगी उत्तर प्रदेश के गन्ना किसानों के आक्रोश के रूप में दिखाई पड़ी थी।
ऐसे में सरकारों को चाहिए कि सबसे बड़े वोट बैंक का भला करने के लिए तो सहमति बनाएं। दलगत विचारधारा से ऊपर उठकर सरकार के रूप में काम करें। अगर और ज्यादा देर तक किसान हितों को नजरअंदाज किया गया तो सरकारों में कृषि मंत्री बनने के लिए मारामारी का आलम खत्म हो जाएगा। किसान परिवारों के युवा खेतीबाड़ी से दूर भाग रहे हैं। कृषि उपज लगातार घट रही है। गुस्से के चलते किसानों में हल की बजाय हथियार उठाने की प्रवृत्ति बढ़ रही है। और ज्यादा देर भूदान आंदोलन, जमींदारी खात्मा और हरित क्रांति जैसे स्वर्णिम अध्यायों पर कालिख पोत सकती है। राजनीति करने वालों को सोचना चाहिए कि इस देश का वास्तविक विकास 'होरीÓ को 'ग्राम देवताÓ बनाने से होगा। केंद्र और राज्य के दो पाटों के बीच पिसते किसान को बचाना अब लाजिमी हो गया है।
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1 comment:

कुमार said...

really a nice & deep story about so called young india.when indians & foreigners look devlopment in india, they only see some developped cities & metros. but real india still reside in rural. if anyone go only 5-10 kilometers downtown from our national highways. then he can only relize that what real india is? where most of the indian population live? what is ths common status of maximum indian population? if we have to build INDIA a developped nation, our government, administration have to change the situation of farmers. which is the need of time.